बनारस पर कविता: इस पौराणिक नगरी का वाराणसी नाम बहुत ही पुराना है, जिसका उल्लेख मत्स्य पुराण, शिव पुराण मे भी मिलता है, किन्तु लोकोउच्चारण मे यह ‘बनारस’ नाम से प्रचलित था, जिसे ब्रिटिश काल मे ‘बेनारस’ कहा जाने और अतंतः 24 मई 1956 को शासकीय रुप से पुनः इसे वराणसी कर दिया गया। आज में आप लोगो के साथ सबसे पुराने शहर या फिर यो कहा जाये की महाशमशान की भूमि काशी पर कुछ कविता शेयर कर रहा हु | आशा करता हु ये पोस्ट बनारस पर कविता, Poem on Banaras in Hindi, वाराणसी पर कविता, काशी पर कविता, मणिकर्णिका का घाट यही है आपको पसंद आएगी |
वाराणसी नाम संभवतः इसे वरूणा और अस्सी इन दो स्थानीय नदियों के नाम पर मिला हुआ होगा, जो क्रमशः उतर और दक्षिण मे गंगा नदी से मिलती हैं। एक मान्यता यह भी है कि वरुणा नदी को प्राचीन काल मे वाराणसी कहा जाता था, जिसके कारण इस शहर को यह नाम मिला, लेकिन यह विचार ज्यादा लोकप्रिय नहीं हैं। बनारस पर कविता
बनारस पर कविता – वाराणसी पर कविता
इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियां
आदमी दशाश्वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आंखों में
एक अजीब-सी नमी है
और एक अजीब-सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज-रोज एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अंधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बांधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज जहां थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बंधी है नाव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊं
सैकड़ों बरस से
कभी सई-सांझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तंभ के
जो नहीं है उसे थामे है
राख और रोशनी के ऊंचे-ऊंचे स्तंभ
आग के स्तंभ
और पानी के स्तंभ
धुएं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टांग से
बिलकुल बेखबर!
Poem on Banaras in Hindi – Poem on Kashi in Hindi
मैं ईश्क कहूँ, तू बनारस समझे…”
मैं गंगा सी निर्मल, बहती निरंतर
तू पत्थर वो अस्सी घाट का,
मैं शीतल साहिल की रेत सी तर
और तू चाँद वो ठण्डी रात का…
मैं काशी की गलियों सी मग्न हर-पल
तू देखता मुझे शांत उस शाम सा,
मैं कुण्ड की लिए खूबसूरती खुद में
तू लगता महादेव के भाँग सा…
मैं बारिश के बाद की वो सोंधी खुश्बू
तू कुल्हड़ वाली दो घूंट चाय सा,
मैं मंदिर पे रंगे उस गेरूए सी
तू लिए रंग वो नुक्कड़ के पान सा…
मैं दशाश्वमेध की संध्या-आरती
तो तू सुबह-ए-बनारस उस घाट का,
मैं जैसे जायका वो चटपटे चाट की
तू खट्टे लस्सी की हल्की मिठास सा…
मैं संगमरमर वो मानस मंदिर की
तू इनमें पड़े उस स्लेटी धार सा,
मैं हाथों से जिसे पढ़ते गुजरती
तू लगता वही उभार किसी दीवार का…
मैं जैसे देव-दीपावली की जगमगाती कशिश
और तू इसकी तरफ डोर कोई खिंचाव का,
मैं तैरते-जलते दीपों सी उज्ज्वल
और तू इन्हें लहराता जैसे कोई बहाव सा…
मैं अंधियारे की वो पीतल सी रौशनी
तू किनारे ठहरा एक मुसाफिर अंजान सा,
मैं पंचगंगेश किनारे की वो मस्जिद
और तू जैसे निकलता उससे अजान सा…
मैं मन्नत किसी बंजारे की
तो तू दुआ है कोई मुकम्मल सा,
मैं मंदिर में पेड़ वो बरगद सी
और तू धागा जैसे कोई मलमल का…
मैं उभरती-मचलती कड़ी जिस राज़ की
तू मुझमें राबता लिए उस एहसास का,
मैं दुर्गा-मंदिर के श्रीफल का पानी
और तू कयास जैसे कोई प्यास का…
मैं लहरों सी उठती-गिरती प्रतिपल
तू लगता इस बीच नौका-विहार सा,
हू मणिकर्णिका की अगर मैं गाथा
तो तू लगता जीवन-मरण के सार सा…
मैं सपनो को समेटे हुए एक परिधि
तू मुझे मुझसे मिलाता एक व्यास सा,
मानो अगर काशी जैसी मुझे कोई नगरी
तो तू है बसता इस नगर में जान सा…